भोपाल । मुर्गीपालकों और कुक्कुट उद्योग के लिए हर साल सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाले बर्ड फ्लू यानी एवियन एन्फ्लुएंजा (एच-9 एन-2) यानी लो पैथोजैनिक वायरस का इलाज खोज लिया गया है। इस वायरस को खत्म करने वाली पहली स्वदेशी वैक्सीन भोपाल स्थित राष्ट्रीय उच्च सुरक्षा पशु रोग संस्थान (एनआईएचएसएडी) ने बाजार में लांच कर दी है। संस्थान के वैज्ञानिकों ने तीन साल के गहन शोध के बाद इस वैक्सीन को बाजार में उतारा है।
हर साल बर्ड फ्लू के चलते लाखों मुर्गे और मुर्गियोंं को मारना पड़ता है। वैक्सीन के बाजार में उपलब्ध होने पर पोल्ट्रीफार्म वालों को इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलेगा। संस्थान के प्रोजेक्ट इन्वेस्टीगेटर डॉ. सी. तोष, डॉ. मनोज कुमार, डॉ. एस. नागराजन और टीम के अन्य सदस्यों ने तीन साल के गहन शोध के बाद इस वैक्सीन को विकसित किया। इसे मृत वायरस से तैयार किया गया है। संस्थान के निदेशक डॉ. अनिकेश सान्याल के अनुसार यह वैक्सीन इतनी कारगर है कि इसकी देश ही नहीं विदेश में भी डिमांड है।


मुर्गियों में आता जाता है बांझपन
गौरतलब है कि अन्य बर्ड फ्लू वायरस के मुकाबले एच9 एन2 कम हानिकारक होता है। इस रोग से ग्रसित मुर्गियां अमूमन मरती तो नहीं हैं लेकिन वह अंडे कम देने लगती हैं। अंतत: वे बांझपन की शिकार हो जाती हैं। इस वैक्सीन के लगने के बाद मुर्गिंयां बीमार नहीं होंगी और उत्पादन क्षमता भी कम नहीं होगी।एच9एन2 के लो पैथोजैनिक वायरस से लाखों मुर्गियां सांस की बीमारी के बाद मर भी जाती हैं। इस वायरस को रोकने के लिए अब तक विदेश से टीका मंगाना पड़ता था। इस बीमारी पर नियंत्रण के लिए 2021 में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को 160.11 करोड़ रुपए जारी किए थे।


छह महीने तक देगा सुरक्षा
प्रोजेक्ट से जुड़े वैज्ञानिकों के मुताबिक टीके को संक्रमण फैलाने वाले विलगित (आइसोलेट) वायरस को पूरी तरह निष्क्रिय कर तैयार किया गया है। इसलिए यह छह महीने तक मुर्गियों को सुरक्षा कवच देगा। ये एच9एन2 के सभी एंटीजेनेकली डायवर्जेंट स्ट्रेन पर कारगर है।


एवियन इन्फ्लुएंजा वायरस दो प्रकार का
एवियन इन्फ्लुएंजा वायरस दो प्रकार का होता है। हाई पैथोजैनिक और लो पैथोजैनिक। हाई पैथोजैनिक एवियन इन्फ्लुएंजा मुर्गियों में मृत्यु दर काफी अधिक (100 प्रतिशत तक) होती है। इसलिए इसके प्रकोप से प्रभावित पक्षियों को मारकर दफन करना पड़ता है। जबकि लो पैथोजैनिक एवियन इन्फ्लुएंजा के संक्रमण से अंडा उत्पादन में कमी (50 प्रतिशत तक), सांस की बीमारी और मृत्यु दर (5 से 6 प्रतिशत) तक होती है।