पितृ पक्ष के में अपने पूर्वजों, पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करने के लिए पिंडदान, श्राद्धकर्म, तर्पण आदि करने का विशेष महत्व बताया गया हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार पितृ पक्ष भाद्रपद मास की पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन मास की अमावस्या पर समाप्त होता है. इस साल 17 सितंबर से पितृ पक्ष की शुरूआत हो रही है, जिसका समापन 2 अक्तूबर को होगा. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार साल के ये 16 दिन पूर्वजों की पूजा, आत्म शांति और आशीर्वाद पाने के लिए बेहद खास होते हैं, इन्हें श्राद्ध कहा जाता है. धार्मिक मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में पितरों की आत्मा अपने परिवार के बीच पृथ्वी पर रहने के लिए आती हैं. इस दौरान उनका पिंडदान, श्राद्ध कर्म और तर्पण करने से वह प्रसन्न होते हैं और परिवार को खुशहाली, संपन्न रहने का आशीर्वाद देते हैं. पितृ पक्ष में अक्सर कौवे को भोजन कराया जाता हैं जो बहुत ही शुभ माना जाता है.

हरिद्वार के ज्योतिषी पंडित श्रीधर शास्त्री ने बताया कि धार्मिक ग्रंथो के अनुसार कौवे की कभी भी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती और न ही उसकी किसी बीमारी या बुढापे से मृत्यु होती हैं. ‘गरुड़ पुराण’ के अनुसार कौवे की मृत्यु अचानक हो जाती है. जिस दिन कौवे की मृत्यु होती है उस दिन उसके झुंड के कौवे खाना नहीं खाते हैं. धार्मिक ग्रंथो में कौवे को पितरों का प्रतीक माना जाता है इसलिए पितृपक्ष में कौवे को भोजन कराने का सबसे अधिक महत्व बताया गया है. जब पितरों का पिंडदान, श्राद्ध कर्म किया जाता है तो उसमें से बली निकाली जाती है जो कौवे को खिलाई जाती है. ऐसा माना जाता है की वह खाना कौवे के रूप में अपने पितरों को खिलाया जाता हैं.

गरुड़ पुराण में है वर्णन
पंडित श्रीधर शास्त्री ने बताया कि धार्मिक मान्यता है कि देवताओं के साथ कौवे ने भी अमृत का पान किया था. पितरों की आत्मा कौवे के अंदर आसानी से आ जाती हैं. कौवा एक स्थान से दूसरे स्थान पर बिना थके पहुंच जाता है. कौवा कितनी भी लंबी दूरी तय कर सकता है और उसे थकावट नहीं होती है. श्राद्ध करने के दौरान उसमें से ग्रास (बली) निकाले जाते हैं जो कौवे को खिलाया जाता है. इसके बाद ही श्राद्ध कर्म को पूर्ण माना जाता है. कौवे का पूरा महत्व धार्मिक ग्रंथ और गरुड़ पुराण में लिखा हुआ है.