मध्य प्रदेश के चुनावी इतिहास में सबसे कांटे का मुकाबला
शुरुआत में कांग्रेस की बढ़त के बाद अब बीजेपी भी बराबरी के मुकाबले में

सुनील 

भोपाल. मध्य प्रदेश में विधानसभा की 230 सीट के लिए होने वाले चुनाव (17 नवंबर) को देश में अगले साल होने वाले आम चुनाव (लोकसभा-2024) से पहले सत्ता का सेमीफाइनल माना जा रहा है। साथ ही इस चुनाव को मप्र के राजनीतिक इतिहास में अब तक का सबसे कांटे का मुकाबला माना जा रहा है।  ऐसा चुनाव जिसमें न कोई भावनात्मक लहर है और न ही कोई ऐसा मुद्दा जिससे सत्ता पक्ष या विपक्ष प्रदेश के आम वोटर को अपने समर्थन में गोलबंद कर सकें। इन सबके बीच वोटर पहली बार इतना खामोश है कि उसके सामने मुफ्त रेवड़ियों के लुभावने वादे और दावों की झड़ी लगाने के बाद भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और मुख्य विपक्ष कांग्रेस उसके मन की थाह नहीं ले पा रहे हैं।
ग्वालियर-चंबल और विंध्य क्षेत्र में कांग्रेस बढ़त बनाए हुई दिखाई देती है।

कांग्रेस की शुरुआती बढ़त के बाद अब बीजेपी भी बराबरी पर 

जून महीने तक शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना के मास्टर स्ट्रोक से पहले चुनाव मैदान में बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस फ्रंटफुट पर नजर आ रही थी। तब चुनावी राजनीति के पंडित कांग्रेस के पक्ष में माहौल को 55 फीसदी और बीजेपी के पक्ष में 45 फीसदी आंक रहे थे। लेकिन प्रदेश में 1 करोड़ 35 लाख महिला वोटर को लाड़ली बहना बनाने के दांव और इसके बाद प्रत्याशियों की लिस्ट जारी करने के मामले में बाजी मारकर बीजेपी चुनावी रेस में वापस बराबरी पर आती नजर आ रही है। प्रत्याशियों की दूसरी सूची में 3 केंद्रीय मंत्री सहित 7 सांसदों और एक राष्ट्रीय महासचिव को विधानसभा के रण में उतारने के दूसरे मास्टर स्ट्रोक ने कांग्रेस को फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने को विवश कर दिया। असर यह हुआ कि कांग्रेस ने अपनी पहली लिस्ट बीजेपी की तुलना में दो महीने बाद पितृपक्ष खत्म होने के बाद नवरात्रि के पहले दिन सुबह 9 बजकर 9 मिनट पर जारी कर खुद को सनातनी परंपरा और संस्कृति का उपासक साबित करने का संदेश देती नजर आई। राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में अब प्रदेश में चुनावी मुकाबला बेहद नजदीकी यानी 50: 50 हो गया है। 3 दिसंबर को सत्ता का ऊंट किस करवट बैठेगा यह अब बीजेपी के बाकी बचे 94 और कांग्रेस के 86 प्रत्याशियों की लिस्ट सामने आने और टिकट से वंचित नेताओं की बगावत को नियंत्रित कर पाने की सफलता पर निर्भर करेगा।

प्रत्याशी घोषित करने में बीजेपी अव्वल  

प्रदेश में रविवार 15 अक्टूबर को कांग्रेस की पहली लिस्ट आते ही विधानसभा की 90 सीटों पर बीजेपी औऱ कांग्रेस के प्रत्याशियों की तस्वीर साफ हो गई है। 230 सदस्यों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा के लिए भाजपा ने अब तक चार सूची में 136 नाम घोषित किए हैं। जबकि कांग्रेस ने पहली सूची में 144 नामों की घोषणा की है। बीजेपी ने टिकट घोषित करने में कांग्रेस से शुरुआती बढ़त हासिल कर ली थी। उसकी पहली लिस्ट 17 अगस्त को जारी हो गई थी। इसके बाद 25 सितंबर को दूसरी लिस्ट आई, जिसमें 39 नाम थे। इसमें पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने चौंकाने वाला फैसला लेते हुए तीन केंद्रीय मंत्रियों- नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गनसिंह कुलस्ते और प्रहलाद पटेल समेत सात सांसदों और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को भी विधानसभा के चुनावी समर में खुद को साबित करने की अग्निपरीक्षा देने का फरमान सुनाया। 26 सितंबर को तीसरी सूची में सिर्फ एक नाम आया। चौथी सूची में 57 नाम सामने आए। बताया जा रहा है कि उसके बाकी प्रत्याशियों की अगली लिस्ट एक-दो दिन में जारी कर दी जाएगी। कांग्रेस ने 15 अक्टूबर को 144 प्रत्याशियों की पहली सूची जारी की है। उसकी दूसरी लिस्ट जल्द ही घोषित किए जाने के संकेत हैं। कुलमिलाकर प्रदेश में चुनावी मुकाबला मुख्य रूप से बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही है। हालांकि आम आदमी पार्टी यानी आप, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी अपने उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे हैं। राज्य के कुछ सीमावर्ती इलाकों में सपा-बसपा का भी प्रभाव है, जिससे कुछ सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले भी देखने को मिल सकते हैं।

2018 में 165 से 109 सीटों पर सिमट गई थी बीजेपी

राज्य में विधानसभा चुनाव के समीकरण, मुद्दों और संभावनाओं पर नजर डालने से पहले पिछले विधानसभा चुनाव-2018 के नतीजों पर नजर डालना जरूरी है। इस चुनाव में कांग्रेस को भाजपा की तुलना में पांच सीटें ज्यादा मिली थीं। कांग्रेस के खाते में 114 सीटें आईं थीं जबकि बीजेपी  को 109 सीटें मिलीं थीं। हालांकि वोट प्रतिशत में बीजेपी थोड़ा आगे रही। चुनाव में बीजेपी को 41.02 प्रतिशत और कांग्रेस को 40.89 प्रतिशत वोट मिले थे। अन्य दलों में बसपा को दो और सपा को एक सीट पर जीत मिली थी। कांग्रेस गठजोड़ करके सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत का 116  विधायकों का आंक़ड़ा जुटाने में सफल रही और कमलनाथ पूरे 15 साल के इंतजार के बाद राज्य में कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री बने। लेकिन कांग्रेस की सरकार 15 महीने ही टिक पाई।

सिंधिया ने बगावत कर कमलाथ सरकार गिराई 

दरअसल, कोरोना महामारी के बीच मार्च 2020 में कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक 22 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। इसमें कमलनाथ सरकार के 6 मंत्री भी शामिल थे। स्पीकर ने सभी का इस्तीफा स्वीकार कर लिया। इस्तीफे के कारण कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, कोर्ट ने कमलनाथ सरकार को फ्लोर टेस्ट कराने का आदेश दिया। लेकिन फ्लोर टेस्ट से पहले कमलनाथ ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में भाजपा ने कांग्रेस के सभी बागी विधायकों को मिलाकर अपने पास 125 विधायक कर लिए और सरकार बना ली। दो निर्दलियों ने भी सरकार को समर्थन दिया। इस तरह शिवराज सिंह चौहान चौथी बार कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर राज्य के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए।

बीजेपी-कांग्रेस में 10-15 सीटों के अंतर का अनुमान 

पिछले विधानसभा चुनाव (2018) के नतीजों  से सीख लेते हुए बीजेपी और कांग्रेस इस बार पूर्ण बहुमत हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करने में जुटीं हैं। साल 2018 के चुनाव के नतीजों पर नजर डालें तो बीजेपी को 56 सीटों का नुकसान के साथ कुल 109 सीटें मिली थीं जबकि कांग्रेस को इतने ही सीटों का फायदा मिलने के साथ कुल 114 सीटें हासिल हुई थीं। वहीं बीएसपी को दो सीटें  और समाजवादी पार्टी को एक सीट मिली थी।  चुनाव में कांटे की टक्कर के हालात से मुकाबिल दोनों ही मुख्य पार्टियां इस बार एक-एक सीट के लिए फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। दोनों में मुकाबला कितना नजदीकी है इसका अंदाज राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू होने (9 अक्टूबर) से पहले कराए गए विभिन्न ओपिनयन पोल के अनुमानों से लगाया जा सकता है। इनके मुताबिक मध्य प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजेपी और राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच कांटे की टक्कर होने के संकेत हैं। इसकी वजह ओपिनियम पोल के नतीजों में दोनों पार्टियों के बीच अधिकतम  10 से 15 सीटों का अंतर रहने का अनुमान हैं। वहीं अन्य को 5 से 10 सीटें मिल सकती। लेकिन प्रदेश में 17 नवंबर को वोटिंग से पहले मतदाताओं का मिजाज बदलने पर यह समीकरण बदल भी सकता है।

मालवा-निमाड़ जीतने वाले को मिलती है प्रदेश की सत्ता 

मध्य प्रदेश में चुनावी राजनीति के इतिहास के आधार पर कहा जाता है कि राजधानी भोपाल में सरकार के मुखिया की कुर्सी पर  उस पार्टी का नेता बैठता है, जो राज्य के छह भौगोलिक क्षेत्रों ( मालवा-निमाड़, मध्य क्षेत्र, बुंदेलखंड, ग्वालियर-चंबल, महाकौशल और विध्य में से सबसे बड़े मालवा-निमाड़ (इंदौर-उज्जैन संभाग) को जीतती है। इस क्षेत्र में विधानसभा की कुल 66 सीटें हैं, जिनमें से 2018 में कांग्रेस को 35 मिली थीं। इसमें उज्जैन संभाग की 29 में से 11 सीटें और इंदौर संभाग की 37 में से 24 सीटें कांग्रेस के खाते में आईं थीं। मालवा बीजेपी का गढ़ माना जाता है। यही कारण है कि इस इलाके में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में मालवा-निमाड़ अंचल पर ही ज्यादा फोकस किया था। अब देखना यह है कि उसे चुनाव में इसका कितना फायदा मिलता है। दूसरी ओर बीजेपी ने यहां अपना ग्राफ बढ़ाने के लिए उज्जैन में महाकाल लोक और ओंकारेश्वर में अद्वैतधाम के माध्यम से हिंदुत्व और सनातन पर फोकस किया है।

मध्य क्षेत्र में बरकरार रहेगी बीजेपी की बढ़त ?  

मध्य क्षेत्र में भोपाल और नर्मदापुरम संभाग आते हैं। भोपाल संभाग (भोपाल जिले के साथ रायसेन, विदिशा और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का गृह जिला सीहोर और राजगढ़ शामिल) में 25 विधानसभा सीटें हैं। 2018 में 25 में से 17 सीटें भाजपा के खाते में आईं थीं जबकि आठ कांग्रेस के पास।  इसी तरह, होशंगाबाद संभाग जिसका नाम बदलकर नर्मदापुरम संभाग ( 3 जिले नर्मदापुरम, हरदा और बैतूल) कर दिया गया था, यहां कुल 11 विधानसभा सीटें हैं। पिछले चुनाव में  सत्तारूढ़ भाजपा को 11 में से सात सीटें मिलीं थीं। बीजेपी मध्य क्षेत्र में अपनी बढ़त बनाए रखने के लिए फूंक-फूंक कर कदम रही है जबकि कांग्रेस को टिकट वितरण में खींचतान का सामना करना पड़ रहा है। 

बुंदेलखंड में कांग्रेस-बीजेपी में कड़ी टक्कर  

बुंदेलखंड में सात जिले सागर, दमोह, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दतिया और निवाड़ी आते हैं। यहां अभी  29 में से 19 सीटों पर बीजेपी का कब्जा है, जबकि कांग्रेस  के पास सिर्फ आठ सीटें हैं। इसके अलावा सपा और बसपा के पास एक-एक सीट हैं। बीजेपी के लिए 2018 के नतीजे दोहराना आसान नहीं है, इसे पार्टी भी मानकर चल रही है। बीजेपी की अंतर्कलह का फायदा उठाकर यहां कांग्रेस अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।

ग्वालियर-चंबल बीजेपी के लिए सबसे बड़ी चुनौती

पिछले चुनाव के नतीजों से बीजेपी को हताश औऱ निराश करने वाले ग्वालियर-चंबल अंचल में इस बार उसके लिए चुनौती और बढ़ गई है। दो कद्दावर केंद्रीय मंत्रियों ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर का गढ़ माने जाने वाले ग्वालियर-चंबल अंचल में 2018 में कांग्रेस को 34 विधानसभा सीटों में से 27 सीटों पर विजय मिली थी। सिंधिया तब कांग्रेस के साथ थे। इसके बाद मार्च 2020 में वह और उनके 22 वफादार विधायक पाला बदलकर भाजपा में शामिल हो गए। इसके चलते कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई थी। कांग्रेस में अपने अपमान का बदला लेते हुए सिंधिया अपने समर्थक विधायकों को बीजेपी सरकार में मलाईदार विभाग का मंत्री बनवाने में और खुद केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री की कुर्सी पाने में सफल हुए। लेकिन अंचल में बीजेपी का आंतरिक संघर्ष गई गुना बढ़ गया। यहां नाराज भाजपा, महाराज भाजपा और शिवराज भाजपा के बीच संघर्ष के चलते पार्टी को इस बार बड़े नुकसान का खामियाजा उठाना पड़ सकता है। इससे कांग्रेस को इस अंचल में बड़ी सफलता की उम्मीद है।

महाकौशल में बीजेपी- कांग्रेस में कड़ा मुकाबला  

महाकौशल क्षेत्र में  2018 के चुनाव  में कुल 38 सीटों में से 24 कांग्रेस की झोली में गईं थीं। इस क्षेत्र में जबलपुर और छिंदवाड़ा का इलाका शामिल हैं, जो पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ का गढ़ माना जाता है। महाकौशल क्षेत्र के आठ जिलों में 15 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। कांग्रेस को 2018 के चुनावों में इनमें से 13 सीटें मिलीं, जबकि भाजपा ने दो सीटें जीतीं। यही कारण है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने जबलपुर से पार्टी के चुनाव अभियान की शुरुआत की। इस क्षेत्र में बीजेपी का ग्राफ सुधारने के लिए  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने चुनाव के लिए बीजेपी का मास्टर स्ट्रेक मानी जा रही 'लाडली बहना योजना' की शुरुआत के लिए जबलपुर को चुना। इसके बाद अंचल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी सभा कराई गई।  

विंध्य में आप ने बढ़ाई कांग्रेस की चुनौती 

विंध्य क्षेत्र में भाजपा ने 2018 में 30 में से 24 सीटें जीतीं थीं। हालांकि शिवराज सरकार में अपेक्षित भागीदारी न मिलने के कारण कांग्रेस, भाजपा के खिलाफ भावनाएं पैदा करने में कामयाब रही है और इस क्षेत्र में भाजपा को कड़ी टक्कर मिलने की संभावना है। हांलांकि सिंगरौली नगर निगम के चुनाव में आम आदमी पार्टी की महापौर रानी अग्रवाल के जीतने के बाद से इस क्षेत्र में आप भी  मप्र विधानसभा में अपना खाता खोलने के लिए गंभीरता से जोर लगा रही है। इसे कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं के लिए चुनौती माना जा रहा है।