बदलाव का क्रम निरंतर चलता है। जैन दर्शन इस क्रम को पर्याय-परिवर्तन के रूप में स्वीकार करता है। पर्याय का अर्थ है अवस्था। प्रत्येक वस्तु की अवस्था प्रतिक्षण बदलती है। यह जगत की स्वाभाविक प्रक्रिया है।कुछ अवस्थाओं को प्रयत्नपूर्वक भी बदला जाता है।स्वभाव से हो या प्रयोग से, बदलाव की प्रक्रिया को बदलना संभव नहीं है।वस्तु बदल सकती है तो व्यक्ति भी बदल सकता है।इस आस्थासूत्र का आलंबन लेकर ही व्यक्ति व्यक्तित्व-निर्माण का लक्ष्य निर्धारित करता है।लक्ष्य निर्णीत होने के बाद उस दिशा में प्रस्थान करता है। आज का आदमी जेट युग की रफ्तार से चलता है। वह आकाश में सीढ़िया लगाने की बात सोचता है और समुद्र में सुरंग बनाने की कल्पना करता है।पर व्यक्ति-निर्माण का काम शॉर्टकट मेथड से पलक झपकते ही हो जाए, यह संभव नहीं है। व्यक्तित्व निर्माण की बात होती है तो प्रश्न उठता है कि किस प्रकार का व्यक्तित्व? इस प्रश्न का समाधान है आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व।व्यक्तित्व निर्माण के इस अनुष्ठान में जिन वर्गों को सहभागी होना है, उनमें एक वर्ग है- स्नातक।  
एक विद्यार्थी स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर का अध्ययन करने में अपने जीवन के सत्रह-अठारह वर्ष लगा देता है। उस समय उसके अभिभावकों के मन में यह भाव नहीं पैदा होता कि उसके ये वर्ष व्यर्थ तो नहीं बीत रहे हैं।क्योंकि डिग्री के साथ जीविका का संबंध जोड़ा जाता है।जीविका जीवन की अनिवार्यता है।लेकिन जीविका से अधिक मूल्यवान जीवन है।जीविका जीवन का साध्य नहीं साधन है।जीवन का साध्य है- विकास की यात्रा में अग्रसर होना। बुद्धि व्यक्तित्व का महज एक घटक है।उसका दूसरा घटक है प्रज्ञा।प्रज्ञा के जागरण से बौद्धिक विकास के साथ भावनात्मक विकास का संतुलन रहता है।जब ये दोनों विकास समानांतर होते हैं, तब आध्यात्मिक वैज्ञानिक व्यक्तित्व का निर्माण हो सकता है। इस बात को स्वयं विद्यार्थी अनुभव करे या नहीं, अभिभावकों को ध्यान देने की अपेक्षा है।